गणतंत्र अभी अधूरी है ## प्रसून कुमार मिश्रा, अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट, संस्थापक, विश्व शक्ति पार्टी
गणतंत्र अभी अधूरी है ## प्रसून कुमार मिश्रा, अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट, संस्थापक, विश्व शक्ति पार्टी
आज देश को आजाद हुऐ कई साल हो गए, लेकिन सही मायने में अभी ये आजादी सभी लोगों तक नहीं पहुँच पाई है । इसका प्रमुख कारण हमारे देश की लीडरशिप है, जिसने हमारे देश को भरस्टाचार से खोखला कर दिया, और इस भरस्टाचार का मुख़्य कारण भी हमारे देश का लोकतंत्र ही है जो देश के लोकतंत्र को पार्टीतंत्र और धनतंत्र में बदल दिया है, इसलिए हम कह सकते है कि अभी गणतंत्र अधूरा है क्योंकि अभी तक यह सिर्फ अमीरों को ही मिल पाया है । इस अधूरे गणतंत्र के लिए खास रूप से जो जिम्मेदार है, वे है हमारे देश कि लीडरशिप, हमारे देश का चुनाव आयोग तथा हमारे देश कि मीडिया । सर्वप्रथम हमारे देश कि लीडरशिप देश में समानता लाने में फेल हो चुके है । अमीरों और गरीबों के बीच बहुत बड़ी खाई है । आज भी लोग महज दो वक्त कि रोटी हेतु परेशान नजर आते है । बेरोजगारी कि एक भीड़ सी खड़ी हो गई है । राजनीती में सहभागिता सिर्फ अमीरों कि रह गई है । इसका कारण हमारे देश कि निक्कमी लीडरशिप है।
हमारा चुनाव आयोग भी कम जिम्मेदार नहीं है । भारत के संविधान के आर्टिकल ३२४ के अनुसार भारत का चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संस्था है I इन्हें चुनाव के आयोजन व नियंत्रण करने का पूर्ण अधिकार और आजादी भारतीय संविधान ने दी है I मगर यह संस्था एक तरह से बड़े पार्टियों और पार्ट के के फायदे के लिए ही काम कर रही है, जिससे देश का लोकतंत्र, पार्टीतंत्र/धनतंत्र में परिवर्तित हो चुका है इसलिए यहाँ के लोकतंत्र में चुनाव जीतने के लिए यह जरुरी नहीं है कि आप कैसे व्यक्ति है और आपकी समाज में कैसी छवि है और आपने समाज की भलाई के लिए क्या किया है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि आप किस पार्टी से हैं। देश में इस पार्टीतंत्र को स्थापित करने का मुख्य श्रेय हमारे चुनाव आयोग को ही जाता है I चुनाव आयोग के चुनाव कराने का तरीका और दिशा-निर्देश भारतीय संविधान के आर्टिकल १४, 'समानता के अधिकार' के खिलाफ है I हमारा चुनाव आयोग चुनावों में समानता का अधिकार अभी तक लागू नहीं कर पाया है और न ही अभी तक उनकी सोच यहाँ तक पहुंची है I इसके साथ ही चुनाव आयोग ने भेद - भावपूर्ण इलेक्शन सिंबल आर्डर १९६८ बना रखा है I यह नियम चुनाव में विभिन्न उम्मीदवारों के बीच भेद - भाव करता है I बड़ी पार्टियों को फिक्स सिंबल दे रखा है, जबकि छोटी पार्टियों तथा स्वतंत्र उम्मीदवारो को कुछ ही दिन पहले सिंबल दिया जाता है I चुनाव आयोग की गलत नीतियों और निष्क्रियता तथा समानता के अधिकार को स्थापित न कर पाने से बड़ी - बड़ी पार्टियाँ धनकुबेर बनी हैं और इस तरह भारत की राजनीति धन-व्यवस्था पर आधारित हो चुकी है। जिसे चुनाव आयोग का समर्थन प्राप्त है I अतः सामान्य जनता का इस लोकतंत्र से भरोसा उठता जा रहा है I इसलिए हमारे देश में एक ऐसे चुनाव आयोग की आवश्यकता है जो चुनाव में समानता का अधिकार स्थापित कर सके, जो चुनाव में धनतंत्र के बल पर जीत हासिल करने पर रोक लगा सके I ये सारी बातें कहना तो आसान है परन्तु इसका समाधान क्या हो सकता है ? मैं चुनाव आयोग के नियम के खिलाफ सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रहा इसका समाधान भी देना चाह रहा हूँ I इसके लिए चुनाव आयोग को सभी उम्मीदवारों को उनके चेहरे का फोटो फिक्स सिंबल के रूप में दे देना चाहिए ताकि जो व्यक्ति समाज के लिए ज्यादा काम करेगा उसके जीतने की संभावना ज्यादा होगी I टीवी, रेडिओ, बैनर, पोस्टर - पम्पलेट आदि से चुनाव प्रचार पर पूर्ण लगाम होनी चाहिए I चुनाव का प्रचार विभिन स्कूल कॉलेजों आदि में उम्मीदवारों के डिबेट के द्वारा होनी चाहिए I सभी पार्टियों के फण्ड जप्त कर 'भारत निर्माण फण्ड' बना कर निष्पक्ष चुनाव के लिए उपयोग होना चाहिए, जो समानता के आधार पर आधारित हो I इस तरह से चुनाव कराने से न केवल चुनाव को निष्पक्ष बनाया जा सकता है अपितु चुनाव में होने वाले फिजूल खर्चो और धन की बर्बादी को भी रोका जा सकता है I परन्तु इस सब के लिए एक निष्पक्ष और बोल्ड फैसले की जरुरत है और यह काम सिर्फ चुनाव आयोग ही कर सकता है जो भारत के संविधान के अनुसार एक स्वतंत्र इकाई है ।
नेता और चुनाव आयोग के साथ-साथ हमारे देश का मीडिया भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है । लोकतंत्र के चौथे स्तम्ब कहे जाने वाली मीडिया पर ही आज लोकतंत्र को खोखला करने का आछेप लग रहा है । आखिर इसका कारण क्या है,जब हम इसकी पड़ताल करते है तो पता चलता है की यह एक पेशा की जगह एक व्यवसाय बन चूका है जहाँ बड़े -बड़े पूंजीपति पैसे लगाते हैं, पैसे कमाने के लिए । यदि पत्रकारिता व्यवसाय बन जाता है तो स्वाभाविक है की सिर्फ पैसे कमाने के लिए ही काम की जाती है। यही हुआ हमारे मीडिया (पत्रकारिता) के साथ। सबसे बड़ी बात यह है की मीडिया लोगों के दिमाग पर बहुत जल्दी छा जाता है और असर करता है और बहुत ही काम समय में दूर तक और अधिक से अधिक लोगों तक बात को पंहुचा देता है। इस बात का पूरा फायदा हमारे देश की मीडिया उठती है। चुनाव में भी हम देख सकते है की मीडिया इस लोकतंत्र को कैसे पार्टीतंत्र और धनतंत्र में बदल देता है । किसी भी निर्वाचन छेत्र को आप ले लें, हमारे देश की मीडिया चंद लोगों का ही कवरेज करती है और ओ भी शायद जो बड़ी पार्टियों से होते हैं।बड़ी बड़ी पार्टियां पैसे के बल पर अपने प्रचार मीडिया के द्वारा कराती हैं, जिससे मीडिया को उनसे बहुत आमदनी होती हैं और यदि पार्टी सत्ता में आ जाये तो भी, सरकार भी मीडिया को बहुत पैसे देती हैं प्रचार के लिए । तब यह मीडिया अपनी जवाबदेही भूल जाता हैं और जहाँ से पैसे मिलते हैं उनका ही गुणगान शुरू हो जाता है और इस तरह मीडिया में एक अघोषित भरष्टाचार शुरू हो जाता हैं। आज की हालत भी कुछ इसी प्रकार की हैं ।मीडिया का यह काम बहुत ही भेद भाव पूर्ण होता हैं, जो इस देश के लोकतंत्र को खोखला करते हुए देश में पार्टीतंत्र और धनतंत्र को स्थापित करता जा रहा हैं जिसमे आम आदमी के आवाज हेतु कोई जगह नहीं बचता हैं क्योंकि अपनी आवाज उठाने हेतु उसके पास पैसे की ताकत नहीं होती हैं। मीडिया के इस कारनामों को लोकतंत्र चुपके से सहन करते जा रही हैं इसका मुख्य कारण, आजादी के इतने सालों बाद भी मीडिया के रेगुलेशन हेतु कोई कानून या निर्देशन का ना बन पाना। यदि देश के लोकतंत्र को पार्टीतंत्र और धनतत्र से बचाना हैं तो मीडिया यानि पत्रकारिता को भी अन्य पेशे जैसे वकालत और डॉक्टरी की तरह बनाना होगा । इसके लिए भी बार कौंसिल और मेडिकल कौंसिल की तरह मीडिया कौंसिल बनानी पड़ेगी और इसमें काम करने वालों को अन्य काम करने पर कुछ पावंदी लगानी होगी, ताकि यह काम सिर्फ एक प्रोफेशनल तक ही रह पाए, जिससे इसका व्यवसाई-करण बंद हो जाये । इसके लिए भी कोड ऑफ़ कंडक्ट बनाने की जरुरत हैं ताकि यहाँ पर काम करने वाले अपने नैतिक मूल्यों को भूल ना पाएं। साथ ही इन मूल्यों को तोड़ने पर सजा की भी प्रावधान हो, तब जाकर हम अपने लोकतंत्र को बहाल रख पायेंगें अन्यथा हमारे देश का लोकतंत्र पूर्ण रूप से पार्टीतंत्र और धनतंत्र में बदल जायेगा, जहाँ आम लोगों के लिए कोई जगह नहीं होगी ।अतः असली गणतंत्र तभी आएगा जब देश के आम लोगों कि भी देश कि राजनीती में सक्रिय सहभागिता हो सकेगी । इसलिये हम कहते है कि अभी गणतंत्र अधूरी है ।
हमारा चुनाव आयोग भी कम जिम्मेदार नहीं है । भारत के संविधान के आर्टिकल ३२४ के अनुसार भारत का चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संस्था है I इन्हें चुनाव के आयोजन व नियंत्रण करने का पूर्ण अधिकार और आजादी भारतीय संविधान ने दी है I मगर यह संस्था एक तरह से बड़े पार्टियों और पार्ट के के फायदे के लिए ही काम कर रही है, जिससे देश का लोकतंत्र, पार्टीतंत्र/धनतंत्र में परिवर्तित हो चुका है इसलिए यहाँ के लोकतंत्र में चुनाव जीतने के लिए यह जरुरी नहीं है कि आप कैसे व्यक्ति है और आपकी समाज में कैसी छवि है और आपने समाज की भलाई के लिए क्या किया है बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि आप किस पार्टी से हैं। देश में इस पार्टीतंत्र को स्थापित करने का मुख्य श्रेय हमारे चुनाव आयोग को ही जाता है I चुनाव आयोग के चुनाव कराने का तरीका और दिशा-निर्देश भारतीय संविधान के आर्टिकल १४, 'समानता के अधिकार' के खिलाफ है I हमारा चुनाव आयोग चुनावों में समानता का अधिकार अभी तक लागू नहीं कर पाया है और न ही अभी तक उनकी सोच यहाँ तक पहुंची है I इसके साथ ही चुनाव आयोग ने भेद - भावपूर्ण इलेक्शन सिंबल आर्डर १९६८ बना रखा है I यह नियम चुनाव में विभिन्न उम्मीदवारों के बीच भेद - भाव करता है I बड़ी पार्टियों को फिक्स सिंबल दे रखा है, जबकि छोटी पार्टियों तथा स्वतंत्र उम्मीदवारो को कुछ ही दिन पहले सिंबल दिया जाता है I चुनाव आयोग की गलत नीतियों और निष्क्रियता तथा समानता के अधिकार को स्थापित न कर पाने से बड़ी - बड़ी पार्टियाँ धनकुबेर बनी हैं और इस तरह भारत की राजनीति धन-व्यवस्था पर आधारित हो चुकी है। जिसे चुनाव आयोग का समर्थन प्राप्त है I अतः सामान्य जनता का इस लोकतंत्र से भरोसा उठता जा रहा है I इसलिए हमारे देश में एक ऐसे चुनाव आयोग की आवश्यकता है जो चुनाव में समानता का अधिकार स्थापित कर सके, जो चुनाव में धनतंत्र के बल पर जीत हासिल करने पर रोक लगा सके I ये सारी बातें कहना तो आसान है परन्तु इसका समाधान क्या हो सकता है ? मैं चुनाव आयोग के नियम के खिलाफ सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रहा इसका समाधान भी देना चाह रहा हूँ I इसके लिए चुनाव आयोग को सभी उम्मीदवारों को उनके चेहरे का फोटो फिक्स सिंबल के रूप में दे देना चाहिए ताकि जो व्यक्ति समाज के लिए ज्यादा काम करेगा उसके जीतने की संभावना ज्यादा होगी I टीवी, रेडिओ, बैनर, पोस्टर - पम्पलेट आदि से चुनाव प्रचार पर पूर्ण लगाम होनी चाहिए I चुनाव का प्रचार विभिन स्कूल कॉलेजों आदि में उम्मीदवारों के डिबेट के द्वारा होनी चाहिए I सभी पार्टियों के फण्ड जप्त कर 'भारत निर्माण फण्ड' बना कर निष्पक्ष चुनाव के लिए उपयोग होना चाहिए, जो समानता के आधार पर आधारित हो I इस तरह से चुनाव कराने से न केवल चुनाव को निष्पक्ष बनाया जा सकता है अपितु चुनाव में होने वाले फिजूल खर्चो और धन की बर्बादी को भी रोका जा सकता है I परन्तु इस सब के लिए एक निष्पक्ष और बोल्ड फैसले की जरुरत है और यह काम सिर्फ चुनाव आयोग ही कर सकता है जो भारत के संविधान के अनुसार एक स्वतंत्र इकाई है ।
नेता और चुनाव आयोग के साथ-साथ हमारे देश का मीडिया भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है । लोकतंत्र के चौथे स्तम्ब कहे जाने वाली मीडिया पर ही आज लोकतंत्र को खोखला करने का आछेप लग रहा है । आखिर इसका कारण क्या है,जब हम इसकी पड़ताल करते है तो पता चलता है की यह एक पेशा की जगह एक व्यवसाय बन चूका है जहाँ बड़े -बड़े पूंजीपति पैसे लगाते हैं, पैसे कमाने के लिए । यदि पत्रकारिता व्यवसाय बन जाता है तो स्वाभाविक है की सिर्फ पैसे कमाने के लिए ही काम की जाती है। यही हुआ हमारे मीडिया (पत्रकारिता) के साथ। सबसे बड़ी बात यह है की मीडिया लोगों के दिमाग पर बहुत जल्दी छा जाता है और असर करता है और बहुत ही काम समय में दूर तक और अधिक से अधिक लोगों तक बात को पंहुचा देता है। इस बात का पूरा फायदा हमारे देश की मीडिया उठती है। चुनाव में भी हम देख सकते है की मीडिया इस लोकतंत्र को कैसे पार्टीतंत्र और धनतंत्र में बदल देता है । किसी भी निर्वाचन छेत्र को आप ले लें, हमारे देश की मीडिया चंद लोगों का ही कवरेज करती है और ओ भी शायद जो बड़ी पार्टियों से होते हैं।बड़ी बड़ी पार्टियां पैसे के बल पर अपने प्रचार मीडिया के द्वारा कराती हैं, जिससे मीडिया को उनसे बहुत आमदनी होती हैं और यदि पार्टी सत्ता में आ जाये तो भी, सरकार भी मीडिया को बहुत पैसे देती हैं प्रचार के लिए । तब यह मीडिया अपनी जवाबदेही भूल जाता हैं और जहाँ से पैसे मिलते हैं उनका ही गुणगान शुरू हो जाता है और इस तरह मीडिया में एक अघोषित भरष्टाचार शुरू हो जाता हैं। आज की हालत भी कुछ इसी प्रकार की हैं ।मीडिया का यह काम बहुत ही भेद भाव पूर्ण होता हैं, जो इस देश के लोकतंत्र को खोखला करते हुए देश में पार्टीतंत्र और धनतंत्र को स्थापित करता जा रहा हैं जिसमे आम आदमी के आवाज हेतु कोई जगह नहीं बचता हैं क्योंकि अपनी आवाज उठाने हेतु उसके पास पैसे की ताकत नहीं होती हैं। मीडिया के इस कारनामों को लोकतंत्र चुपके से सहन करते जा रही हैं इसका मुख्य कारण, आजादी के इतने सालों बाद भी मीडिया के रेगुलेशन हेतु कोई कानून या निर्देशन का ना बन पाना। यदि देश के लोकतंत्र को पार्टीतंत्र और धनतत्र से बचाना हैं तो मीडिया यानि पत्रकारिता को भी अन्य पेशे जैसे वकालत और डॉक्टरी की तरह बनाना होगा । इसके लिए भी बार कौंसिल और मेडिकल कौंसिल की तरह मीडिया कौंसिल बनानी पड़ेगी और इसमें काम करने वालों को अन्य काम करने पर कुछ पावंदी लगानी होगी, ताकि यह काम सिर्फ एक प्रोफेशनल तक ही रह पाए, जिससे इसका व्यवसाई-करण बंद हो जाये । इसके लिए भी कोड ऑफ़ कंडक्ट बनाने की जरुरत हैं ताकि यहाँ पर काम करने वाले अपने नैतिक मूल्यों को भूल ना पाएं। साथ ही इन मूल्यों को तोड़ने पर सजा की भी प्रावधान हो, तब जाकर हम अपने लोकतंत्र को बहाल रख पायेंगें अन्यथा हमारे देश का लोकतंत्र पूर्ण रूप से पार्टीतंत्र और धनतंत्र में बदल जायेगा, जहाँ आम लोगों के लिए कोई जगह नहीं होगी ।अतः असली गणतंत्र तभी आएगा जब देश के आम लोगों कि भी देश कि राजनीती में सक्रिय सहभागिता हो सकेगी । इसलिये हम कहते है कि अभी गणतंत्र अधूरी है ।
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